चंद और पृथ्वीराज स्वयं भी कटार मार कर मर गए। 'पृथ्वीराज-रासो 69 खंडों का वृहत् ग्रंथ है, जिसका वृत्त ऐतिहासिक है, किंतु प्रामाणिक नहीं।
फिर भी काव्य की दृष्टि से रासो में महाकाव्य के समस्त लक्षण हैं। इसमें वीर एवं शृंगार रस का निरूपण तथा ॠतु वर्णन सुंदर हुए हैं।
इसकी भाषा ब्रज भाषा का अपभ्रंश 'पिंगल है, जिसमें ओज, माधुर्य और प्रसाद गुण विद्यमान हैं। मुहावरे और अलंकार भी प्रचुर मात्रा में हैं।
साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से इस ग्रंथ का बहुत महत्व है। इसके रचयिता चंद कुशल कवि, सच्चे मित्र और तंत्र-मंत्र के पंडित थे। इन्हें जालंधरी देवी का वरदान प्राप्त था, जिससे ये 'वरदाई कहलाए।
पूरब दिसि गढ गढनपति, समुद-सिषर अति द्रुग्ग।
तहँ सु विजय सुर-राजपति, जादू कुलह अभग्ग॥
प्रबल भूप सेवहिं सकल, धुनि निसाँन बहु साद॥
दस हजार हय-चढत हेम-नग जटित साज तिन॥
इक नायक, कर धरि पिनाक, घर-भर रज रक्खह।
भंडार लछिय अगनित पदम, सो पद्मसेन कूँवर सुघर॥
तार उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ, काम-कामिनि रचिय॥
पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर, नर, मुनियर पास॥
जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥
कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयौ हुलास॥
अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥
चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥
चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढावत फुल्ल॥
करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥
कमल-गंध, वय संध, हंसगति चलत मंद-मंद॥
भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥
उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय॥