Ayodhya Issue

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

मै नहीं जनता की विवाद की जड़ क्या है और क्या हुआ था पैर इस विवाद का जिक्र करने वालो के अंदर एक जहर भरा हुआ है, जो ये जानते हुए भी की इस का जिक्र जिस जिस के शामने होगा वो सभी इस जहर से प्रभवित होते जायेंगे,ये बात प्राक्रतिक है की जहर कोई नहीं पचाना चाहता , पर अगर इसके बदले कुछ मीठा मिल जाये तो सारा कुछ हज़म हो जायेगा, मेरे भाइयो समय बदल रहा है आपका घर ही आपका मंदिर मस्जिद है आप इसको चलाने के लिए मेहनत और ईमानदारी से इसका भरन पोसढ़ करिए जिससे एक नए समाज का विकास होगा जो चरित्रवान , मेहनती , इमानदार होगी .....हाँ एक और बात १०० आने सत्य है की आपके घर से बड़ा न कोई मंदिर है न कोई मस्जिद और आप इसके सबसे बड़े पुजारी इसमें न किसी हिन्दू का अधिकार है न मुस्लिम का केवल आपका है और दिखा दीजिये की आप कितने बड़े पुजारी है अगर आपके घर का एक भी सदस्य बेगार है या ईमानदारी का नहीं खाता तब तक आपकी पूजा अधूरी होगी ....कोई भी धर्म कमजोर नहीं हर एक धर्म किसी भी मानव समाज के लिए जिन्दगी जीने के सम्पूर्ण नियमो कर्मो का समावेश रखता है ,धर्मो की तुलना करने से अच्छा है की आप उनको केवल जानने और समझने की इच्छा रखो ...
और इस बात का हमेशा ख्याल रखना चाहिए की इन्शानियत से बड़ी चीज कुछ नहीं ...जय हिंद जय भारत (बालेन्द्र सिंह )

एक नजर इनपर भी

शनिवार, 19 जून 2010

अडोल्फ़ हिटलर
एक ऑस्ट्रियाई में जन्मे जर्मन राजनीतिज्ञ और नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी (जर्मन नेता: Nationalsozialistische Deutsche Arbeiterpartei, NSDAP संक्षिप्त था), सामान्यतः नाजी पार्टी के रूप में जाना जाता है. वह से 1933 जर्मनी की चांसलर 1945 के लिए गया था और, 1934 के बाद राज्य के प्रमुख के रूप में भी Fuhrer Reichskanzler und, जर्मनी के तानाशाह के रूप में एक निरपेक्ष देश सत्तारूढ़.

प्रथम विश्व युद्ध के एक अनुभवी सजाया, हिटलर 1919 में नाजी पार्टी (डीएपी) के अग्रदूत साबित शामिल हुए और 1921 में NSDAP के नेता बने. 1923 में एक Bavaria में विफल तख्तापलट के बाद उनके कारावास के बाद, वह जर्मन राष्ट्रवाद, विरोधी Semitism, विरोधी पूंजीवाद, और विरोधी के साथ साम्यवाद बढ़ावा देने के द्वारा समर्थन प्राप्त करिश्माई वक्तृत्व और प्रचार. वह 1933 में चांसलर नियुक्त किया गया था, और जल्दी तीसरा रैह, एक ही पक्ष के राष्ट्रीय समाजवाद की अधिनायकवादी और आदर्शों पर आधारित निरंकुश तानाशाही में Weimar गणराज्य बदल दिया.

हिटलर अंततः निरपेक्ष यूरोप में नाजी जर्मनी के आधिपत्य की एक नई व्यवस्था की स्थापना करना चाहता था. इस को प्राप्त करने, वह Lebensraum कब्जा के घोषित लक्ष्य के साथ एक विदेशी नीति अपनाई ("अंतरिक्ष रहने वाले" आर्यन लोगों के लिए), इस लक्ष्य की दिशा में राज्य के संसाधनों का निर्देशन. यह जर्मनी, जो 1939 में हुआ जब Wehrmacht पोलैंड पर आक्रमण के फिर से हथियारबंद होना शामिल है. जवाब में, ब्रिटेन और फ्रांस जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा की, यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के फैलने के लिए अग्रणी.

तीन वर्षों के भीतर, जर्मनी और अक्षरेखा शक्तियों यूरोप के अधिकांश पर कब्जा कर लिया था, और अफ्रीका के सबसे उत्तरी, पूर्वी और दक्षिण पूर्व एशिया और प्रशांत महासागर. तथापि, सोवियत संघ के नाजी आक्रमण के उत्क्रमण के साथ, मित्र राष्ट्रों 1942 के बाद से ऊपरी हाथ प्राप्त की. 1945 से, मित्र देशों की सेनाओं ने सभी पक्षों से जर्मन आयोजित यूरोप पर आक्रमण किया. नाजी सेनाओं के युद्ध के दौरान कई हिंसक कृत्यों में लगे, के रूप में कई के रूप में 17 लाख नागरिकों की व्यवस्थित हत्या सहित, [3] एक अनुमान के अनुसार साठ लाख जिनमें से थे प्रलय में लक्षित यहूदियों और 500000 के बीच 1500000 Romanis थे.अन्य लक्षित जातीय डंडे, सोवियत नागरिकों, युद्ध के सोवियत कैदी शामिल हैं, विकलांग लोग, समलैंगिकों, जेनोवा है गवाहों, और अन्य राजनीतिक और धार्मिक विरोधियों को.

युद्ध के अंतिम दिनों, 1945 में बर्लिन की लड़ाई के दौरान में, हिटलर अपने लंबे समय प्रेमिका ईवा Braun शादी की और, के लिए दो दिन से भी कम समय सोवियत सेना द्वारा कब्जा करने के बाद बचने के लिए, दो ने आत्महत्या कर ली .

बेनिटो मुसोलिनी:
बेनिटो मुसोलिनी Amilcare Andrea, KSMOM (GCTE 1883 29 जुलाई, Predappio, Forlì-Cesena के प्रांत - 1945 28 अप्रैल) एक इतालवी राजनीतिज्ञ जो नेतृत्व में राष्ट्रीय फासिस्ट पार्टी है और एक फासीवाद के निर्माण में प्रमुख आंकड़ों के होने का श्रेय दिया जाता था. 1922 में उन्होंने इटली के 40 वीं प्रधानमंत्री बने और 1925 के द्वारा शीर्षक Il Duce का उपयोग शुरू किया. 1936 के बाद उनकी आधिकारिक शीर्षक था "महामहिम बेनिटो मुसोलिनी, सरकार, फासीवाद की Duce, और साम्राज्य के संस्थापक के प्रमुख". मुसोलिनी भी बनाया और राजा इटली विक्टर Emmanuel क्ष्क्ष्क्ष् है, जो इटली की सेना पर उसे और राजा सर्वोच्च संयुक्त नियंत्रण दिया साथ साम्राज्य के पहले मार्शल का सर्वोच्च सैन्य पद का आयोजन किया. मुसोलिनी ने सत्ता में बने रहे जब तक वह 1943 में बदल दिया गया था, और उसकी मौत जब तक एक छोटी अवधि के लिए इस के बाद, वह इतालवी सामाजिक गणराज्य के नेता थे.

मुसोलिनी ने इटली के फासीवाद, जो राष्ट्रवाद corporatism, राष्ट्रीय श्रमिक संघवाद, विस्तारवाद, सामाजिक प्रगति और विरोधी साम्यवाद का प्रचार subversives और राज्य की सेंसरशिप के साथ संयोजन में शामिल तत्वों के संस्थापकों में से था. साल में फासीवादी विचारधारा के अपने निर्माण के बाद मुसोलिनी को प्रभावित किया है, या से, राजनीतिक आंकड़ों की एक विस्तृत विविधता प्रशंसा हासिल की.

1924-1939 साल से मुसोलिनी की घरेलू उपलब्धियों में थे: अपने सार्वजनिक काम करता है Pontine दलदल, नौकरी के अवसरों में सुधार, और सार्वजनिक परिवहन के taming जैसे कार्यक्रम. मुसोलिनी ने इटली की किंगडम और पवित्रा देखें के बीच Lateran संधि समापन द्वारा रोमन प्रश्न हल. वह भी इटली की कालोनियों और वाणिज्यिक निर्भरता में आर्थिक सफलता का श्रेय हासिल है. हालांकि वह शुरू में जर्मनी के खिलाफ प्रारंभिक 1930 के दशक में फ्रांस के साथ साइडिंग इष्ट, मुसोलिनी एक अक्षरेखा शक्तियों का मुख्य आंकड़े से एक बन गया है और, 10 1940 जून, मुसोलिनी द्वितीय विश्व युद्ध में धुरी के पक्ष में इटली का नेतृत्व किया. तीन साल बाद, मुसोलिनी फासीवाद के ग्रैंड परिषद में बयान दिया था, मित्र देशों की आक्रमण द्वारा प्रेरित किया. उसके बाद जल्द ही क़ैद शुरू किया, मुसोलिनी था जर्मन विशेष बलों ने साहस Gran Sasso छापे में जेल से बचाया. उसके बचाव के बाद, मुसोलिनी इटली कि मित्र देशों की सेनाओं द्वारा कब्जा कर रहे थे के कुछ हिस्सों में इतालवी सामाजिक गणतंत्र का नेतृत्व किया. देर से 1945 कुल हार looming के साथ, अप्रैल में, मुसोलिनी को स्विट्जरलैंड के लिए भागने का प्रयास किया, केवल जल्दी से कब्जा करने के लिए और सरसरी इतालवी partisans द्वारा कोमो झील के पास मार डाला. उसका शरीर तो मिलान करने के लिए ले जाया गया जहां यह उल्टा जनता को देखने के लिए एक पेट्रोल स्टेशन पर नीचे करने के लिए और उनके निधन की पुष्टि प्रदान लटका दिया गया था.

Leon Trotsky
Leon Trotsky (रूसी: के बारे में यह ध्वनि Лев Давидович (Троцкий मदद ·) जानकारी, यूक्रेनी: Лев Давидович Троцький (लेव Davidovich Trotsky भी Lyev, Trotski, Trotskij, Trockij और Trotzky transliterated) नवम्बर 7 [ओएस 26 अक्टूबर 1879] - 21 अगस्त 1940), Davidovich लेव (Bronstein रूसी: Лев Давидович Бронштéйн जन्म), एक Bolshevik क्रांतिकारी और मार्क्सवादी विचारक था. वह एक रूसी अक्टूबर क्रांति, केवल व्लादिमीर लेनिन के लिए दूसरे के नेताओं की थी. सोवियत संघ के शुरुआती दिनों के दौरान उन्होंने पहली सेवा की पीपुल्स विदेश और संस्थापक और लाल सेना के कमांडर और युद्ध की पीपुल्स महासचिव के रूप में बाद के लिए महासचिव के रूप में. वह पोलित ब्यूरो के सदस्यों के बीच पहले भी था.

नीतियों के खिलाफ वामपंथी विपक्ष के प्रमुख संघर्ष में विफल रहा है और जोसेफ स्टालिन की 1920 और सोवियत संघ में नौकरशाही की बढ़ती भूमिका में वृद्धि के बाद, Trotsky कम्युनिस्ट पार्टी से निष्कासित किया गया था और सोवियत संघ से भेजा. यूरोपीय फासीवाद के खिलाफ एक लाल सेना के हस्तक्षेप के शीघ्र अधिवक्ता, [2] Trotsky भी 1930 के दशक में स्टालिन एडॉल्फ हिटलर के साथ शांति समझौतों का विरोध किया.

चौथे इंटरनेशनल के सिर के रूप में, Trotsky निर्वासन में जारी करने के लिए सोवियत संघ में कम्युनिस्ट नौकरशाही का विरोध किया गया और अंततः मेक्सिको में हत्या कर दी, Ramon Mercader, एक सोवियत एजेंट द्वारा [3.] है Trotsky विचारों Trotskyism के आधार फार्म एक शब्द गढ़ा के रूप में जल्दी 1905 के रूप में अपने विरोधियों द्वारा ताकि इसे मार्क्सवाद से अलग. है Trotsky विचारों मार्क्सवादी सोचा कि Stalinism के सिद्धांतों के खिलाफ है की एक प्रमुख स्कूल रहेंगे. वह एक सोवियत कुछ राजनीतिक आंकड़े जो सोवियत प्रशासन द्वारा पुनर्वास किया गया कभी नहीं की थी.

उपन्यासकार कमलेश्वर

शुक्रवार, 4 जून 2010

You have the power to make your favorite team WIN and the power to make their Opponent team LOOSE…World Cup
हिन्दी लेखक कमलेश्वर कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा Great Indian





मूलतः सिनेमा के लिए लिखे गए बड़े कैनवस के इस छोटे उपन्यास पर दृष्टि डालने के पूर्व लेखक के 'कुछ शब्द' पढ़ लेना ज़रूरी है, ''यह उपन्यास मेरे आंतरिक अनुभव और सामाजिक सरोकारों से नहीं जन्मा है और इसका प्रयोजन और सरोकार भी अलग है. . .यह उपन्यास साहित्य के स्थायी या परिवर्तनशील रचना विधान और शास्त्र की परिधि में नहीं समाएगा क्यों कि यह सिनेशास्त्र के अधीन लिखा गया है।''
निस्संदेह एक लंबी कालावधि के ओर-छोर में बसी इस द्रुतगामी कथा को रचना विधान इन तथ्यों को काफ़ी गंभीरता और स्वतःस्फूर्त ढंग से स्पष्ट कर देता है। लेखक के ही शब्दों में निहित सरोकारों के लिए नई शब्दावली में जिसे एक पीरियड फ़िल्म कहते हैं, के निर्माण के लिए लिखे गए इस उपन्यास में स्वतंत्रता पूर्व के दृश्य हैं, जहाँ अपने समय के संघर्ष और त्रासदियों को झेलता एक परिवार है, पर जहाँ उस परिवार के चरित्रों के विकास की पूर्वकथाएँ नहीं हैं। संभव है, सिनेशास्त्र के लिए यह आवश्यक न हो। बहरहाल, बाबू कुंदनलाल के दो बेटे हैं प्रवीण और नवीन, तथा एक बेटी है मुन्नी। उनकी पत्नी का नाम है सरस्वती। संयुक्त परिवार के विलगाव की पहचान स्वरूप कुंदन के भाई हैं जो उनकी पुश्तैनी संपत्ति में नाजायज़ तरीके से क़ाबिज़ हैं और यह प्रकरण न्यायालय में लंबित है। काल के संक्रमण में तमाम विपरीतताओं के रू-ब-रू खड़े ये परिवार अपनी अस्तित्व रक्षा और अस्मिता के अपने-अपने मूल्यों के साथ जूझ रहे हैं।
उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि कुंदनलाल का बेटा नवीन स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांतिकारी है। ब्रिटिश पुलिस उसे पागलों की तरह ढूँढ़ रही होती है। परिवार से जुड़े प्रसंगों के इतर उसका जब भी ज़िक्र आता है, उपन्यास की रोचकता बढ़ जाती है। मूल कथा वहाँ से शुरू होती है जब कुंदनलाल के बड़े बेटे का विवाह शांता नामक देशभक्त लड़की से हो रहा होता है और वह जब विदा होकर एक नई जीवन यात्रा के लिए ट्रेन में होती है, तब लुकता-छिपता उसका क्रांतिकारी देवर नवीन उससे मिलने पहुँचता है।
1
स्पष्ट है कि शांता की देशभक्ति उससे मिलने के बाद ज़्यादा प्रबल होती है। लेकिन शांता का पति यानी नवीन का बड़ा भाई प्रवीण गांधीवादी विचारधारा का है और स्कूल में अध्यापक है। उसमें नवीन जैसी दृढ़ता का सर्वथा अभाव है।
कथा के उत्तरोत्तर विकास में आगे तमाम ऐसी घटनाएँ हैं जो उस काल विशेष में संभव हो सकती थीं। मसलन, शांता कथा के अंतिम छोर तक आते-आते 'अम्मा' के रूप में प्रतिष्ठित होती है। इस प्रतिष्ठा की प्राप्ति के एवज़ में उसे अनेक प्रकांड दुख झेलने पड़ते हैं। पति प्रवीण की हत्या होती है, तब सास से लेकर समाज तक के लोग उसे सती हो जाने के लिए सनातनता की याद दिलाते हुए उकसाते हैं। पर उसके ससुर द्वारा उसे ऐन वक्त पर बचा लिया जाता है। कालांतर में न्यायालय के निर्णय के बाद उसे पुश्तैनी जायदाद हासिल होती है। आगे चलकर वह संपन्न कारोबारी बनती है। पर उन शिखर दिनों के अंत में वह 'अम्मा' कहलाने लायक तब होती है, जब जायदाद के बँटवारे में वह अपने जेठ के पाले हुए बच्चों को भी शामिल करती है और अपने धूर्त दामाद को कठोर शर्तों के साथ वहाँ स्थान देती है। कठोर जीवन के समानांतर एक प्लूटॉनिक किस्म का प्रेम उसके जीवन में किशोरावस्था से पैवस्त रहता है पर एक पड़ोसी की शिनाख़्त के रूप से आगे वह कभी नहीं बढ़ता। वह पड़ोसी सलीम जीवनपर्यंत उसका साथ निभाता है।
दरअसल, यह उपन्यास तात्कालिक व्यवस्था में एक मानक सामाजिकता की शीर्ष स्थिति की वकालत करता है। सबसे रोचक तथ्य यह है कि इन सार्थक मूल्यों के पीछे विचारधाराओं की अभिप्रेरणा काम नहीं करती। यह मनुष्य के प्रादुर्भाव के बाद निरंतर विकसित होता वह तत्व है जो अंततः विद्यमान रहेगा। संभवतः लेखक जीवन के इस तत्व की अक्षुण्णता से भलीभाँति परिचित है इसलिए बिना किसी लाग-लपेट के इसे यहाँ प्रतिपादित करने में सफल हुआ है।
भाषा की सहजता-सरलता तो यहाँ एक दीर्घकालिक लेखन के कौशल को दर्शाती ही है, प्रभावोत्पादकता पैदा करने की गरज से उत्पन्न अनावश्यक विस्तार की अनुपस्थिति पाठकीय जिज्ञासा में बाधा पैदा नहीं करती।

सुदर्शन की कहानी

हार की जीत 

माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे ‘सुल्तान’ कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रूपया, माल, असबाब, ज़मीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे-से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। “मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा”, उन्हें ऐसी भ्रान्ति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, “ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।” जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ-दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता।
खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते-होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, “खडगसिंह, क्या हाल है?”
खडगसिंह ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, “आपकी दया है।”
“कहो, इधर कैसे आ गए?”
“सुलतान की चाह खींच लाई।”
“विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे।”
“मैंने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है।”
“उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!”
“कहते हैं देखने में भी बहुत सुँदर है।”
“क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है।”
“बहुत दिनों से अभिलाषा थी, आज उपस्थित हो सका हूँ।”
बाबा भारती और खड़गसिंह अस्तबल में पहुँचे। बाबा ने घोड़ा दिखाया घमंड से, खड़गसिंह ने देखा आश्चर्य से। उसने सैंकड़ो घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था। सोचने लगा, भाग्य की बात है। ऐसा घोड़ा खड़गसिंह के पास होना चाहिए था। इस साधु को ऐसी चीज़ों से क्या लाभ? कुछ देर तक आश्चर्य से चुपचाप खड़ा रहा। इसके पश्चात् उसके हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला, “परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?”
दूसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय अधीर हो गया। घोड़े को खोलकर बाहर गए। घोड़ा वायु-वेग से उडने लगा। उसकी चाल को देखकर खड़गसिंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अधिकार समझता था। उसके पास बाहुबल था और आदमी भी। जाते-जाते उसने कहा, “बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा।”
बाबा भारती डर गए। अब उन्हें रात को नींद न आती। सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रति क्षण खड़गसिंह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं मिथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता। कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे। सहसा एक ओर से आवाज़ आई, “ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना।”
आवाज़ में करूणा थी। बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले, “क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?”
अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, “बाबा, मैं दुखियारा हूँ। मुझ पर दया करो। रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।”
“वहाँ तुम्हारा कौन है?”
“दुगार्दत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मैं उनका सौतेला भाई हूँ।”
बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था।बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, “ज़रा ठहर जाओ।”
खड़गसिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।”
“परंतु एक बात सुनते जाओ।” खड़गसिंह ठहर गया।
बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, “यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। परंतु खड़गसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूँ। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।”
“बाबाजी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूँ, केवल घोड़ा न दूँगा।”
“अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।”
खड़गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, “बाबाजी इसमें आपको क्या डर है?”
सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।” यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो।
बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड़गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूँज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊँचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाईं खिल जाता था। कहते थे, “इसके बिना मैं रह न सकूँगा।” इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी। उन्हें केवल यह ख्याल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्वास करना न छोड़ दे। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है।
रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंक रहे थे। मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड़गसिंह सुल्तान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक खुला पड़ा था। किसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आँखों में नेकी के आँसू थे। रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात्, इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े। परंतु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पाँव को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रूक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया और ज़ोर से हिनहिनाया। अब बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो। बार-बार उसकी पीठपर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते। फिर वे संतोष से बोले, “अब कोई दीन-दुखियों से मुँह न मोड़ेगा।”

 

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी

काबुलीवाला

मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, "बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।" मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। "देखो, बाबूजी, भोला कहता है – आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?" और फिर वह खेल में लग गई।
मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!"
कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अँगूर की पिटारी लिए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी
दो-चार बच्चे मिल सकते हैं।
काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने उससे कुछ सौदा खरीदा। फिर वह बोला, "बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?"
मैंने मिनी के मन से डर दूर करने के लिए उसे बुलवा लिया। काबुली ने झोली से किशमिश और  बादाम निकालकर मिनी को देना चाहा पर उसने कुछ न लिया। डरकर वह मेरे घुटनों से चिपट गई। काबुली से उसका पहला परिचय इस तरह हुआ। कुछ दिन बाद, किसी ज़रुरी काम से मैं बाहर जा रहा था। देखा कि मिनी काबुली से खूब बातें कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। मिनी की झोली बादाम-किशमिश से भरी हुई थी। मैंने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, "इसे यह सब क्यों दे दिया? अब मत देना।" फिर मैं बाहर चला गया।
कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।
काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?"
रहमत हँसता हुआ कहता, "हाथी।" फिर वह मिनी से कहता, "तुम ससुराल कब जाओगी?"
इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, "तुम ससुराल कब जाओगे?"
रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, "हम ससुर को मारेगा।" इस पर मिनी खूब हँसती।
हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।
एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।
कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।
इतने में "काबुलीवाले, काबुलीवाले", कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ‘’तुम ससुराल जाओगे?" रहमत ने हँसकर कहा, "हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।"
रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, "ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।"
छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।
काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।
कई साल बीत गए।
आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।
पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।
मैंने पूछा, "क्यों रहमत कब आए?"
"कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ," उसने बताया।
मैंने उससे कहा, "आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।"

वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, "ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?"
शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले" चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, "आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।"

वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर निकल गया।

मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ।  इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, “'यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।“

मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, 'आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।'  फिर ज़रा ठहरकर बोला, “आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।“

उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले  ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय मिनी को बाहर बुलाया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी  मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न  करते बना। बाद में वह हँसते हुए बोला, “लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?”

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा।

मिनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने?  वह उसकी याद में खो गया।
मैने कुछ रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिए और कहा, “रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ।“